सीधे मुख्य सामग्री पर जाएं

संदेश

जन्माष्टमी का त्यौहार हर साल बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है इन दिनों सभी घरो में इसकी तैयारी शुरू हो गयी है। भगवान श्री कृष्ण को दूध ,मक्खन ,से बनी चीजे काफी पसंद है .ऐसे में इस जन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण की खुश करने के लिए व्रत वाली खीर बना सकते है .जन्माष्टमी के दिन बहुत से लोग व्रत रखते है ऐसे में दिन भर एनर्जी से भरपूर रहने के लिए या भगवान को भोग चढ़ाकर प्रसाद में ग्रहण करने के लिए आप व्रत वाली खीर बना सकते है ये झटपट बनकर तैयार हो जाती है इसके रेसिपी काफी सरल है तो चलिए जानते है व्रत वाली खीर बनाने की सरल रेसिपी के बारे मेंसामग्री - सावा के चावल आधा कप,चीनी आधा कप ,किशमिश 15,इलायची पाउडर आधा चम्मच,बादाम 13खीर बनाने की रेसिपी - जन्माष्टमी के मोके पर व्रत वाली खीर बनाने के लिए सबसे पहले एक पेन में दूध डाले और इसे अच्छे से उबाल ले। इसके बाद जब दूध गाढ़ा हो जाये तो इसमें सावा का चावल मिला दे।अब चावल को अच्छे तरह से पकने दे।अब इसमें जरूरतानुसार चीनी डाले।खीर में चीनी डालने के बाद इसे घुलने दे अब इसमें ड्राई फ्रूट्स और इलायची मिला दे और खीर को अच्छी तरह से चलाये ध्यान रखे की ये जले नहीं .कुछ देर इसे धीमी गैस पर पका दे जब ये अच्छे से पक जाए तो इसे गैस से उतार ले अब आपकी व्रत वाली खीर बनकर तैयार है इसे सर्व करे या इसका भोग भी लगा सकते हैThe festival of #Janmashtami is celebrated every year with great pomp, these days preparations have started in all the houses. Lord Shri Krishna is very fond of things made from milk, butter, so this Janmashtami worship Lord Shri.

जन्माष्टमी का त्यौहार हर साल बड़ी धूम धाम से मनाया जाता है इन दिनों सभी घरो में इसकी तैयारी शुरू हो गयी है। भगवान श्री कृष्ण को दूध ,मक्खन ,से बनी चीजे काफी पसंद है .ऐसे में इस जन्माष्टमी भगवान श्री कृष्ण की खुश करने के लिए व्रत वाली खीर बना सकते है .जन्माष्टमी के दिन बहुत से लोग व्रत रखते है ऐसे में दिन भर एनर्जी से भरपूर रहने के लिए या भगवान को भोग चढ़ाकर प्रसाद में ग्रहण करने के लिए आप व्रत वाली खीर बना सकते है ये झटपट बनकर तैयार हो जाती है इसके रेसिपी काफी सरल है तो चलिए जानते है व्रत वाली खीर बनाने की सरल रेसिपी के बारे में सामग्री - सावा के चावल आधा कप,चीनी आधा कप ,किशमिश 15,इलायची पाउडर आधा चम्मच,बादाम 13 खीर बनाने की रेसिपी - जन्माष्टमी के मोके पर व्रत वाली खीर बनाने के लिए सबसे पहले एक पेन में दूध डाले और इसे अच्छे से उबाल ले। इसके बाद जब दूध गाढ़ा हो जाये तो इसमें सावा का चावल मिला दे।अब चावल को अच्छे तरह से पकने दे।अब इसमें जरूरतानुसार चीनी डाले। खीर में चीनी डालने के बाद इसे घुलने दे अब इसमें ड्राई फ्रूट्स और इलायची मिला दे और खीर को अच्छी तरह से चलाये ध्यान रखे की...

जय श्री कृष्ण जी  भगवान श्रीकृष्ण को योगेश्वर क्यों कहा गया ?By वनिता कासनियां पंजाबयोगेश्वर भगवान कृष्ण को दी गई एक अत्यंत उपयुक्त उपाधि है। इस शब्द का उद्देश्य इंद्रियों का स्वामी है। कृष्ण, सर्वोच्च चेतना ने मानव जाति को उसकी नींद और अज्ञानता से मुक्त करने के लिए पृथ्वी पर उतरने का विकल्प चुना। कृष्ण ने अपने जीवन में कई अलौकिक उपलब्धियां हासिल कीं। पूर्णावतार (पूर्ण अवतार) के रूप में, वे हमेशा भौतिक दुनिया के किसी भी बंधन से दूर अस्तित्व की आनंदमय स्थिति में रहे। यही एक कारण है कि कृष्ण को योगेश्वर कहा जाता है।एक योगी एक सुपर इंसान है जो जीवन के उच्च और अधिक योग्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निम्न झुकावों का त्याग करता है। एक योगी को अपनी परिपक्वता के स्तर और श्रेष्ठ क्षमताओं को साबित करने के लिए अपने व्रत या व्रत पर दृढ़ रहना चाहिए। अपने भक्त की मन्नत को पूरा करने के लिए कृष्ण ने इस संबंध में एक कदम और आगे बढ़कर अपनी मन्नत का त्याग कर दिया। ऐसा करके, उन्होंने साबित किया कि वह एक श्रेष्ठ योगी या योगेश्वर, योगियों के भगवान हैं। कृष्ण के इस पहलू को उजागर करने वाली घटना यहाँ दिलचस्प और ध्यान देने योग्य है।महाभारत युद्ध से पहले, धर्मजा और धुर्योदन दोनों अपना समर्थन जुटाते हुए आगे बढ़े। इन दोनों के आकर्षण का केंद्र कृष्णा था। एक दिन धर्मजा और दुर्योधन कृष्ण से सहायता मांगने गए। कृष्ण अपने सोफे पर लेटे हुए थे। धर्मजा कृष्ण के चरणों में खड़े थे जबकि दुर्योधन उनके सिर के पास रहे। जब कृष्ण ने झपकी लेने के बाद अपनी आँखें खोलने का नाटक किया, तो उनकी नज़र सबसे पहले धर्मजा पर पड़ी, जो उनके चरणों में विनम्रतापूर्वक प्रतीक्षा कर रहे थे। तभी उन्होंने देखा और दुर्योधन को प्रणाम किया। कृष्ण ने कहा कि पहले आओ पहले प्राथमिकता के आधार पर धर्मजा और धुर्युदान पूछ सकते हैं कि वे उनसे क्या चाहते हैं। कृष्ण ने यह भी कहा कि उन्होंने एक तरफ रहना चुना और दूसरी तरफ अपनी सेना को दे देंगे। धर्मजा ने कृष्ण की मांग की जबकि दुर्योधन ने कृष्ण की सेना मांगी। कृष्ण ने आगे कहा कि जब वह धर्मजा का पक्ष लेंगे तो युद्ध के मैदान में कभी भी अपने हाथ में हथियार नहीं रखेंगे।जब कौरव सेना का नेतृत्व करने की भीष्म की बारी थी, तो दुर्योधन ने उनसे एक दिन में पांडवों और उनकी सेना को परास्त करने की अपेक्षा की। उन्होंने ठीक से युद्ध न करने के लिए भीष्म को फटकार लगाई और उनका अपमान किया। अपने क्रोध में भीष्म ने प्रतिज्ञा की कि वे अपने भीषण युद्ध से कृष्ण को भी अपने हाथों में शस्त्र उठाएंगे। युद्ध के मैदान में भीष्म दहाड़ते हुए सिंह की तरह आगे की ओर झुके। कृष्ण ने भीष्म को बेकाबू पाया। वे अपने भक्त के हृदय को जानते थे। वह कभी नहीं चाहता था कि भीष्म अपनी प्रतिज्ञा को विफल करे। इसलिए, कृष्ण ने अपने हाथों पर एक रथ का पहिया ले जाने का विकल्प चुना और उसे युद्ध के मैदान में घुमाया। इस प्रकार, अपने भक्त को पास करने के लिए, कृष्ण खुद को विफल करने के लिए तैयार थे। यहाँ हम कृष्ण को यह साबित करने के लिए कई कदम ऊपर चढ़ते हुए पाते हैं कि वह योगेश्वर हैं, जो एक उच्च चिंता के लिए निचली चिंताओं का त्याग करते हैं - हाँ, सर्वोच्च भगवान के लिए, अपने भक्त का समर्थन करना उनकी व्यक्तिगत प्रतिज्ञा से अधिक महत्वपूर्ण चिंता का विषय है।#Vnitaराधे राधेभगवद गीता में, कृष्ण ने कर्म योग, भक्ति योग और ज्ञान योग नामक तीन धाराओं में दिव्य ज्ञान का समर्थन किया। पुरुषों को अनंत काल तक शिक्षित करने के लिए इन तीन योगों के रूप में योगेश्वर के फव्वारा सिर से सर्वोच्च ज्ञान प्रवाहित हुआ।jai shree krishna jiWhy is Lord Krishna called Yogeshwar?By Vnita Kasnia PunjabYogeshwar is a highly appropriate title given to Lord Krishna. The object of this word is the lord of the senses. Krishna

जय श्री कृष्ण जी  भगवान श्रीकृष्ण को योगेश्वर क्यों कहा गया ? By वनिता कासनियां पंजाब योगेश्वर भगवान कृष्ण को दी गई एक अत्यंत उपयुक्त उपाधि है। इस शब्द का उद्देश्य इंद्रियों का स्वामी है। कृष्ण, सर्वोच्च चेतना ने मानव जाति को उसकी नींद और अज्ञानता से मुक्त करने के लिए पृथ्वी पर उतरने का विकल्प चुना। कृष्ण ने अपने जीवन में कई अलौकिक उपलब्धियां हासिल कीं। पूर्णावतार (पूर्ण अवतार) के रूप में, वे हमेशा भौतिक दुनिया के किसी भी बंधन से दूर अस्तित्व की आनंदमय स्थिति में रहे। यही एक कारण है कि कृष्ण को योगेश्वर कहा जाता है। एक योगी एक सुपर इंसान है जो जीवन के उच्च और अधिक योग्य लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए निम्न झुकावों का त्याग करता है। एक योगी को अपनी परिपक्वता के स्तर और श्रेष्ठ क्षमताओं को साबित करने के लिए अपने व्रत या व्रत पर दृढ़ रहना चाहिए। अपने भक्त की मन्नत को पूरा करने के लिए कृष्ण ने इस संबंध में एक कदम और आगे बढ़कर अपनी मन्नत का त्याग कर दिया। ऐसा करके, उन्होंने साबित किया कि वह एक श्रेष्ठ योगी या योगेश्वर, योगियों के भगवान हैं। कृष्ण के इस पहलू को उजागर करने वाली घटना यहाँ...

दो सुन्दर प्रसंग एक श्रीकृष्ण का और एक श्री राम का,,माखन चोर नटखट श्री कृष्ण को रंगे हाथों पकड़ने के लिये एक ग्वालिन ने एक अनोखी जुगत भिड़ाई।उसने माखन की मटकी के साथ एक घंटी बाँध दी, कि जैसे ही बाल कृष्ण माखन-मटकी को हाथ लगायेगा, घंटी बज उठेगी और मैं उसे रंगे हाथों पकड़ लूँगी।बाल कृष्ण अपने सखाओं के साथ दबे पाँव घर में घुसे।श्री दामा की दृष्टि तुरन्त घंटी पर पड़ गई और उन्होंने बाल कृष्ण को संकेत किया।बाल कृष्ण ने सभी को निश्चिंत रहने का संकेत करते हुये, घंटी से फुसफसाते हुये कहा:-"देखो घंटी, हम माखन चुरायेंगे, तुम बिल्कुल मत बजना"घंटी बोली "जैसी आज्ञा प्रभु, नहीं बजूँगी"बाल कृष्ण ने ख़ूब माखन चुराया अपने सखाओं को खिलाया - घंटी नहीं बजी।ख़ूब बंदरों को खिलाया - घंटी नहीं बजी।अंत में ज्यों हीं बाल कृष्ण ने माखन से भरा हाथ अपने मुँह से लगाया , त्यों ही घंटी बज उठी।घंटी की आवाज़ सुन कर ग्वालिन दौड़ी आई। ग्वाल बालों में भगदड़ मच गई।सारे भाग गये बस श्री कृष्ण पकड़ाई में आ गये।बाल कृष्ण बोले - "तनिक ठहर गोपी , तुझे जो सज़ा देनी है वो दे दीजो , पर उससे पहले मैं ज़रा इस घंटी से निबट लूँ...क्यों री घंटी...तू बजी क्यो...मैंने मना किया था न...?"घंटी क्षमा माँगती हुई बोली - "प्रभु आपके सखाओं ने माखन खाया , मैं नहीं बजी...आपने बंदरों को ख़ूब माखन खिलाया , मैं नहीं बजी , किन्तु जैसे ही आपने माखन खाया तब तो मुझे बजना ही था...मुझे आदत पड़ी हुई है प्रभु...मंदिर में जब पुजारी भगवान को भोग लगाते हैं तब घंटियाँ बजाते हैं...इसलिये प्रभु मैं आदतन बज उठी और बजी..."श्री गिरिराज धरण की जय...श्री बाल कृष्ण की जयउस समय का प्रसंग है जब केवट भगवान के चरण धो रहा है. बड़ा प्यारा दृश्य है, भगवान का एक पैर धोता का उसे निकलकर कठौती से बाहर रख देता है,और जब दूसरा धोने लगता है तो पहला वाला पैर गीला होने सेजमीन पर रखने से धूल भरा हो जाता है,केवट दूसरा पैर बाहर रखता है फिर पहले वाले को धोता है,एक-एक पैर को सात-सात बार धोता है.कहता है प्रभु एक पैर कठौती मे रखिये दूसरा मेरे हाथ पर रखिये, ताकि मैला ना हो. जब भगवान ऐसा करते हैतो जरा सोचिये क्या स्थिति होगी , यदि एक पैर कठौती में है दूसरा केवट के हाथो में, भगवान दोनों पैरों से खड़े नहीं हो पाते बोले - केवट मै गिर जाऊँगा ?केवट बोला - चिंता क्यों करते हो सरकार !दोनों हाथो को मेरे सिर पर रखकर खड़े हो जाईये, फिर नहीं गिरेगे ,जैसे कोई छोटा बच्चा है जब उसकी माँ उसे स्नान कराती है तो बच्चा माँ के सिर पर हाथ रखकर खड़ा हो जाता है,भगवान भी आज वैसे ही खड़े है.भगवान केवट से बोले - भईया केवट !मेरे अंदर का अभिमान आज टूट गया.केवट बोला - प्रभु ! क्या कह रहे है ?भगवान बोले - सच कह रहा हूँ केवट,अभी तक मेरे अंदर अभिमान था, किमै भक्तो को गिरने से बचाता हूँ परआज पता चला कि,भक्त भी भगवान को गिरने से बचाता है.कान्हा दीवानी वनिता की और से जय जय श्री राधे राधे

दो सुन्दर प्रसंग एक श्रीकृष्ण का और एक श्री राम का ,, माखन चोर नटखट श्री कृष्ण को रंगे हाथों पकड़ने के लिये एक ग्वालिन ने एक अनोखी जुगत भिड़ाई। उसने माखन की मटकी के साथ एक घंटी बाँध दी, कि जैसे ही बाल कृष्ण माखन-मटकी को हाथ लगायेगा, घंटी बज उठेगी और मैं उसे रंगे हाथों पकड़ लूँगी। बाल कृष्ण अपने सखाओं के साथ दबे पाँव घर में घुसे। श्री दामा की दृष्टि तुरन्त घंटी पर पड़ गई और उन्होंने बाल कृष्ण को संकेत किया। बाल कृष्ण ने सभी को निश्चिंत रहने का संकेत करते हुये, घंटी से फुसफसाते हुये कहा:- "देखो घंटी, हम माखन चुरायेंगे, तुम बिल्कुल मत बजना" घंटी बोली "जैसी आज्ञा प्रभु, नहीं बजूँगी" बाल कृष्ण ने ख़ूब माखन चुराया अपने सखाओं को खिलाया - घंटी नहीं बजी। ख़ूब बंदरों को खिलाया - घंटी नहीं बजी। अंत में ज्यों हीं बाल कृष्ण ने माखन से भरा हाथ अपने मुँह से लगाया , त्यों ही घंटी बज उठी। घंटी की आवाज़ सुन कर ग्वालिन दौड़ी आई।  ग्वाल बालों में भगदड़ मच गई। सारे भाग गये बस श्री कृष्ण पकड़ाई में आ गये। बाल कृष्ण बोले - "तनिक ठहर गोपी , तुझे जो सज़ा देनी है वो दे दीजो ...

मेरे_श्याम_के_आँसू By वनिता कासनियां पंजाब एक बार श्री कृष्ण को रोते देखकर गोपी श्री कृष्ण से रोने का कारण पूछती है!उसी के उतर में श्री कृष्ण कहते हैं.....सुनो सखी जहाँ प्रेम है, वहाँ निश्चय ही आखों से आसुंओ की धारा बहती रहेगी!प्रेमी का हृदय पिघलकर आँसुओं के रूप में निरंतर बहता रहता है और उसी अश्रु-जल, प्रेम जल में प्रेम का पौधा अंकुरित होकर निरंतर बढ़ता रहता है! सखी! मैं स्वयं प्रेमी के प्रेम में निरंतर रोता रहता हूँ मेरी आँखों से निरंतर आँसुओं की धारा चलती रहती है!मेरी इच्छा नहीं थी कि मैं बतांउ! पर तुमने बार-बार पूछा तुम क्यों रोते हो? तो आज बात कह देता हूँ ! मैं अपने प्रेमी के प्रेम में रोता हूँ, जो मेरा प्रेमी है, वह निरंतर रोता है और मैं भी उसके लिये निरंतर रोता हूँ!सखी! जिस दिन मेरे जैसे प्रेम के समुद्र में तुम डूबोगी, जिस दिन तुम्हारे हृदय में प्रेम का समुद्र....उसी प्रेम का समुद्र जो मेरे हृदय में नित्य-निरंतर लहराता रहता है, लहराने लगेगा, उस दिन तुम भी मेरी ही तरह बस केवल रोती रहोगी!सखी! उन आँसुओं की धारा से.जगत पवित्र होता है, वे आँसू नहीं है, वह तो गंगा यमुना की धारा है!उनमे डूबकी लगाने पर फिर त्रिताप नहीं रहते!सखी! मैं देखता हूँ कि मेरी गोपी, मेरे प्राणों के समान प्यारी गोपी रो रही है, मेरी प्रियतमा रो रही है, बस मैं भी यह देखते ही रोने लगता हूँ! मेरा हृदय भी रोने लगा जाता है! मेरी प्रिया प्राणों से बढ़कर प्यारी गोपी जिस प्रकार एंकात में बैठकर रोती है, वैसे ही मैं भी एंकात मैं बैठकर रोता हूँ, और रो रोकर प्राण शीतल करता हूँ यह है मेरे रोने का रहस्य।कान्हा दीवानी वनिता...!!

मेरे_श्याम_के_आँसू  By वनिता कासनियां पंजाब एक बार श्री कृष्ण को रोते देखकर गोपी श्री कृष्ण से रोने का कारण पूछती है! उसी के उतर में श्री कृष्ण कहते हैं.....सुनो सखी जहाँ प्रेम है, वहाँ निश्चय ही आखों से आसुंओ की धारा बहती रहेगी! प्रेमी का हृदय पिघलकर आँसुओं के रूप में निरंतर बहता रहता है और उसी अश्रु-जल, प्रेम जल में प्रेम का पौधा अंकुरित होकर निरंतर बढ़ता रहता है!  सखी! मैं स्वयं प्रेमी के प्रेम में निरंतर रोता रहता हूँ मेरी आँखों से निरंतर आँसुओं की धारा चलती रहती है! मेरी इच्छा नहीं थी कि मैं बतांउ! पर तुमने बार-बार पूछा तुम क्यों रोते हो?  तो आज बात कह देता हूँ ! मैं अपने प्रेमी के प्रेम में रोता हूँ,  जो मेरा प्रेमी है, वह निरंतर रोता है और मैं भी उसके लिये निरंतर रोता हूँ! सखी! जिस दिन मेरे जैसे प्रेम के समुद्र में तुम डूबोगी, जिस दिन तुम्हारे हृदय में प्रेम का समुद्र.... उसी प्रेम का समुद्र जो मेरे हृदय में नित्य-निरंतर लहराता रहता है, लहराने लगेगा,  उस दिन तुम भी मेरी ही तरह बस केवल रोती रहोगी! सखी! उन आँसुओं की धारा से.जगत पवित्र होता है, व...

बृजवास_मिलनौ_इतनौ_सहज_नाय By वनिता कासनियां पंजाब 💞ऐसे ही मिल जातो जो वास बृज को,तो हर आदमी बृजवासी हैं जातो💞💞बृजवास मिलना आसान नहीं क्योंकिये कोई घर या मकान नहीं।💞💞💞ये धाम है मेरे प्रिया-प्रियतम का, यहाँ का प्रवेश देवों के लिये भी आसान नहीं💞💞सिर्फ भाव छल कपट रहित हृदय ही बृज में बसा सकता है श्यामा-श्याम की चरन रज दिला सकता है।।बृजवास पाने के लिए बृज की महारानी श्री किशोरी जू के चरणों में विनयकर प्रार्थना कीजिए कि किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊं किशोरी की रज पाऊं तभी ही संभव है बृजवास।सुनो कान्हा जी....!!!आज न नींद आई कान्हान ख्वाब आए,कान्हा तुम जो ख्यालो मे बेहिसाबआएकान्हा दीवानी वर्षा...!!!कान्हा दीवानी वनिता..!! श्री लाड़ली राधा रानी

बृजवास_मिलनौ_इतनौ_सहज_नाय By  वनिता कासनियां पंजाब 💞ऐसे ही मिल जातो जो वास बृज को, तो हर आदमी बृजवासी हैं जातो💞 💞बृजवास मिलना आसान नहीं क्योंकि ये कोई घर या मकान नहीं।💞💞 💞ये धाम है मेरे प्रिया-प्रियतम का,  यहाँ का प्रवेश देवों के लिये भी आसान नहीं💞 💞सिर्फ भाव छल कपट रहित हृदय ही बृज में बसा सकता है श्यामा-श्याम की चरन रज दिला सकता है।। बृजवास पाने के लिए बृज की महारानी श्री किशोरी जू के चरणों में विनयकर प्रार्थना कीजिए कि किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊं किशोरी की रज पाऊं तभी ही संभव है बृजवास। सुनो कान्हा जी....!!! आज न नींद आई कान्हा न ख्वाब आए, कान्हा तुम जो ख्यालो मे बेहिसाब आए कान्हा दीवानी वर्षा...!!! कान्हा दीवानी वनिता..!!             श्री लाड़ली राधा रानी 

कभी विष्णु कभी शिव बन भक्त को छकाते भगवान भक्तों को आनन्द और शिक्षा देने के लिए होती है भगवान की लीला!!!!!!! By वनिता कासनियां पंजाब ?तीन बार ऐसा हुआ कि नरहरि सुनार को आंखें बंद करने पर शंकर और आंखें खोलने पर विट्ठल भगवान के दर्शन होते थे । तब नरहरि सुनार को आत्मबोध हुआ कि जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल हैं, वे ही शंकर हैं, दोनों एक ही हरिहर हैं । भगवान शिव और विष्णु की एकता दर्शाती एक मनोरंजक भक्ति कथा,,,,,,इस कथा को लिखने का उद्देश्य पाठकों को यह बताना है कि भगवान विष्णु और शंकर में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं । भगवान शंकर और विष्णु वास्तव में दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति हैं । जल एक ही है, सिर्फ घड़े दो हैं । इसी भाव को लोगों तक पहुंचाने के लिए भगवान शंकर ने अपने भक्त नरहरि सुनार के साथ एक लीला की । भगवान जब कोई लीला करते हैं तो उसके पीछे कोई महान शिक्षा या आदर्श छिपा रहता है और भक्तों को उससे आनन्द मिलता है ।नरहरि सुनार : शिव भक्त पर विष्णु द्रोहीपुराने समय में पण्ढरपुर में नरहरि सुनार नाम के ऐसे शिव भक्त हुए जिन्होंने पण्ढरपुर में रहकर भी कभी पण्ढरीनाथ श्रीपाण्डुरंग के दर्शन नहीं किए । उनकी ऐसी विलक्षण शिवभक्ति थी । लेकिन भगवान को जिसे अपने दर्शन देने होते हैं, वे कोई-न-कोई लीला रच ही देते हैं ।भगवान की लीला से एक व्यक्ति इन्हें श्रीविट्ठल (भगवान विष्णु) की कमर की करधनी बनाने के लिए सोना दे गया और उसने भगवान की कमर का नाप बता दिया । नरहरि ने करधनी तैयार की, पर जब वह भगवान को पहनाई गयी तो वह चार अंगुल बड़ी हो गयी । उस व्यक्ति ने नरहरि से करधनी को चार अंगुल छोटा करने को कहा । करधनी सही करके जब दुबारा श्रीविट्ठल को पहनाई गयी तो वह इस बार चार अंगुल छोटी निकली । फिर करधनी चार अंगुल बड़ी की गयी तो वह भगवान को चार अंगुल बड़ी हो गयी । फिर छोटी की गयी तो वह चार अंगुल छोटी हो गयी । इस तरह करधनी को चार बार छोटा-बड़ा किया गया ।आंखों पर पट्टी बांधकर नरहरि ने लिया भगवान का नाप!!!!!!लाचार होकर नरहरि सुनार ने स्वयं चलकर श्रीविट्ठल का नाप लेने का निश्चय किया । पर कहीं भगवान के दर्शन न हो जाएं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली । हाथ बढ़ाकर जो वह मूर्ति की कमर टटोलने लगे तो उनके हाथों को पांच मुख, दस हाथ, सर्प के आभूषण, मस्तक पर जटा और जटा में गंगा—इस तरह की शिवजी की मूर्ति का अहसास हुआ । उनको विश्वास हो गया कि ये तो उनके आराध्य भगवान शंकर ही हैं ।उन्होंने अपनी आंखों की पट्टी खोल दी और ज्यों ही मूर्ति को देखा तो उन्हें श्रीविट्ठल के दर्शन हुए । फिर आंखें बंद करके मूर्ति को टटोला तो उन्हें पंचमुख, चन्द्रशेखर, गंगाधर, नागेन्द्रहाराय श्रीशंकर का स्वरूप प्रतीत हुआ।आंखें बंद करने पर शंकर, आंखें खोलने पर विट्ठल!!!!!!!तीन बार ऐसा हुआ कि आंखें बंद करने पर शंकर और आंखें खोलने पर नरहरि सुनार को विट्ठल भगवान के दर्शन होते थे । तब नरहरि सुनार को आत्मबोध हुआ कि जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल हैं, वे ही शंकर हैं, दोनों एक ही हरिहर हैं ।अभी तक उनकी जो भगवान शंकर और विष्णु में भेदबुद्धि थी, वह दूर हो गयी और उनका दृष्टिकोण व्यापक हो गया । अब वे भगवान विट्ठल के भक्तों के ‘बारकरी मण्डल’ में शामिल हो गए । सुनार का व्यवसाय करते हुए हुए भी इन्होंने अभंग (भगवान विट्ठल या बिठोवा की स्तुति में गाए गए छन्द) की रचना की । इनके एक अभंग का भाव कितना सुन्दर है—‘भगवन् ! मैं आपका एक सुनार हूँ, आपके नाम का व्यवहार (व्यवसाय) करता हूँ । यह गले का हार देह है, इसका अन्तरात्मा सोना है। त्रिगुण का सांचा बनाकर उसमें ब्रह्मरस भर दिया । विवेक का हथौड़ा लेकर उससे काम-क्रोध को चूर किया और मनबुद्धि की कैंची से राम-नाम बराबर चुराता रहा । ज्ञान के कांटे से दोनों अक्षरों को तौला और थैली में रखकर थैली कंधे पर उठाए रास्ता पार कर गया। यह नरहरि सुनार, हे हरि ! तेरा दास है, रातदिन तेरा ही भजन करता है ।’शिव-द्रोही वैष्णवों को और विष्णु-द्वेषी शैवों को इस कथा से सीख लेनी चाहिए ।पद्मपुराण पा ११४।१९२ में भगवान शंकर विष्णुजी से कहते हैं—न त्वया सदृशो मह्यं प्रियोऽस्ति भगवन् हरे ।पार्वती वा त्वया तुल्या न चान्यो विद्यते मम ।।अर्थात्—औरों की तो बात ही क्या, पार्वती भी मुझे आपके समान प्रिय नहीं है ।इस पर भगवान विष्णु ने कहा—‘शिवजी मेरे सबसे प्रिय हैं, वे जिस पर कृपा नहीं करते उसे मेरी भक्ति प्राप्त नहीं होती है ।’कूर्मपुराण में ब्रह्माजी ने कहा है—‘जो लोग भगवान विष्णु को शिवशंकर से अलग मानते हैं, वे मनुष्य नरक के भागी होते हैं ।’* सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥भावार्थ:- जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकरजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥* संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥भावार्थ:- जिनको शंकरजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥

कभी विष्णु कभी शिव बन भक्त को छकाते भगवान भक्तों को आनन्द और शिक्षा देने के लिए होती है भगवान की लीला!!!!!!! By  वनिता कासनियां पंजाब  ? तीन बार ऐसा हुआ कि नरहरि सुनार को आंखें बंद करने पर शंकर और आंखें खोलने पर विट्ठल भगवान के दर्शन होते थे । तब नरहरि सुनार को आत्मबोध हुआ कि जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल हैं, वे ही शंकर हैं, दोनों एक ही हरिहर हैं । भगवान शिव और विष्णु की एकता दर्शाती एक मनोरंजक भक्ति कथा,,,,,, इस कथा को लिखने का उद्देश्य पाठकों को यह बताना है कि भगवान विष्णु और शंकर में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं । भगवान शंकर और विष्णु वास्तव में दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति हैं । जल एक ही है, सिर्फ घड़े दो हैं । इसी भाव को लोगों तक पहुंचाने के लिए भगवान शंकर ने अपने भक्त नरहरि सुनार के साथ एक लीला की । भगवान जब कोई लीला करते हैं तो उसके पीछे कोई महान शिक्षा या आदर्श छिपा रहता है और भक्तों को उससे आनन्द मिलता है । नरहरि सुनार : शिव भक्त पर विष्णु द्रोही पुराने समय में पण्ढरपुर में नरहरि सुनार नाम के ऐसे शिव भक्त हुए जिन्होंने पण्ढरपुर में रहकर ...

एक बार उद्धव जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा हे "कृष्ण"आप तो महाज्ञानी हैं, भूत, वर्तमान व भविष्य के बारे में सब कुछ जानने वाले हो आपके लिए कुछ भी असम्भव नही,में आपसे मित्र धर्म की परिभाषा जानना चाहता हूँ.उसके गुण धर्म क्या क्या हैं।By वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹भगवान बोले उद्धव सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति के समय बिना मांगे ही अपने मित्र की सहायता करे.उद्धव जी ने बीच मे रोकते हुए कहा "हे कृष्ण" अगर ऐसा ही है तो फिर आप तो पांडवों के प्रिय बांधव थे.एक बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर विश्वास किया किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है उसके अनुरूप मित्रता नही निभाई.आप चाहते तो पांडव जुए में जीत सकते थे।आपने धर्मराज युधिष्ठिर को जुआ खेलने से क्यों नही रोका. ठीक है आपने उन्हें नहीं रोका,लेकिन यदि आप चाहते तो अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा पासे को धर्मराज के पक्ष में भी तो कर सकते थे लेकिन आपने भाग्य को धर्मराज के पक्ष में भी नहीं किया। आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और स्वयं को हारने के बाद भी तो रोक सकते थे उसके बाद जब धर्मराज ने अपने भाइयों को दांव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे।किंतु आपने ये भी नहीं किया.इसके बाद जब दुष्ट दुर्योधन ने पांडवों को भाग्यशाली कहते हुए द्रौपदी को दांव पर लगाने हेतु प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे।लेकिन इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया जब द्रौपदी लगभग अपनी लाज खो रही थी, तब जाकर आपने द्रोपदी के वस्त्र का चीर बढ़ाकर द्रौपदी की लाज बचाई किंतु ये भी आपने बहुत देरी से किया उसे एक पुरुष घसीटकर भरी सभा में लाता है, और इतने सारे पुरुषों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है. जब आपने संकट के समय में पांडवों की सहायता की ही नहीं की तो आपको आपदा बांधव (सच्चा मित्र) कैसे कहा जा सकता है. क्या यही धर्म है।भगवान श्री कृष्ण बोले - हे उद्धव सृष्टि का नियम है कि जो विवेक से कार्य करता है विजय उसी की होती है उस समय दुर्योधन अपनी बुद्धि और विवेक से कार्य ले रहा था किंतु धर्मराज ने तनिक मात्र भी अपनी बुद्धि और विवेक से काम नही लिया इसी कारण पांडवों की हार हुई।भगवान कहने लगे कि हे उद्धव - दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि से द्यूतक्रीडा करवाई यही तो उसका विवेक था धर्मराज भी तो इसी प्रकार विवेक से कार्य लेते हुए ऐसा सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई को पासा देकर उनसे चाल चलवा सकते थे या फिर ये भी तो कह सकते थे कि उनकी तरफ से श्री कृष्ण यानी मैं खेलूंगा।जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता ? पांसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार,चलो इसे भी छोड़ो. उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इसके लिए तो उन्हें क्षमा भी किया जा सकता है लेकिन उन्होंने विवेक हीनता से एक और बड़ी गलती तब की जब उन्होंने मुझसे प्रार्थना की, कि मैं तब तक सभाकक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए क्योंकि ये उनका दुर्भाग्य था कि वे मुझसे छुपकर जुआ खेलना चाहते थे।इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया.मुझे सभाकक्ष में आने की अनुमति नहीं थी इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर बहुत समय तक प्रतीक्षा कर रहा था कि मुझे कब बुलावा आता है।पांडव जुए में इतने डूब गए कि भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए और मुझे बुलाने के स्थान पर केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे.अपने भाई के आदेश पर जब दुशासन द्रोपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभाकक्ष में लाया तब वह अपने सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही, तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा।उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुशासन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया.जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर 'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम' की गुहार लगाते हुए मुझे पुकारा तो में बिना बिलम्ब किये वहां पहुंचा. हे उद्धव इस स्थिति में तुम्हीं बताओ मेरी गलती कहाँ रही।उद्धव जी बोले कृष्ण आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई, क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ?कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा – इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा.क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे।भगवान मुस्कुराये - उद्धव सृष्टि में हर किसी का जीवन उसके स्वयं के कर्मों के प्रतिफल के आधार पर चलता है। में इसमें प्रत्यक्ष रूप से कोई हस्तक्षेप नही करता। मैं तो केवल एक 'साक्षी' हूँ जो सदैव तुम्हारे साथ रहकर जो हो रहा है उसे देखता रहता हूँ. यही ईश्वर का धर्म है।'भगवान को ताना मारते हुए उद्धव जी बोले "वाह वाह, बहुत अच्छा कृष्ण", तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी कर्मों को देखते रहेंगें हम पाप पर पाप करते जाएंगे और आप हमें रोकने के स्थान पर केवल देखते रहेंगे. आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते करते पाप की गठरी बांधते रहें और उसका फल भोगते रहें।भगवान बोले – उद्धव, तुम धर्म और मित्रता को समीप से समझो, जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे साथ हर क्षण रहता हूँ, तो क्या तुम पाप कर सकोगे ?तुम पाप कर ही नही सकोगे और अनेक बार विचार करोगे की मुझे विधाता देख रहा है किंतु जब तुम मुझे भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि तुम मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तुम्हे कोई देख नही रहा तब ही तुम संकट में फंसते हो। धर्मराज का अज्ञान यह था उसने समझा कि वह मुझ से छुपकर जुआ खेल सकता हैअगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक प्राणी मात्र के साथ हर समय उपस्थित रहता हूँ तो क्या वह जुआ खेलते।और यदि खेलते भी तो जुए के उस खेल का परिणाम कुछ और नहीं होता। भगवान के उत्तर से उद्धव जी अभिभूत हो गये और बोले – प्रभु कितना रहस्य छुपा है आपके दर्शन में। कितना महान सत्य है ये ! पापकर्म करते समय हम ये कदापि विचार नही करते कि परमात्मा की नज़र सब पर है कोई उनसे छिप नही सकता,और उनकी दृष्टि हमारे प्रत्येक अच्छे बुरे कर्म पर है। परन्तु इसके विपरीत हम इसी भूल में जीते रहते हैं कि हमें कोई देख नही रहा।प्रार्थना और पूजा हमारा विश्वास है जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि भगवान हर क्षण हमें देख रहे हैं, उनके बिना पत्ता तक नहीं हिलता तो परमात्मा भी हमें ऐसा ही आभास करा देते हैं की वे हमारे आस पास ही उपस्तिथ हैं और हमें उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है.हम पाप कर्म केवल तभी करते हैं जब हम भगवान को भूलकर उनसे विमुख हो जाते हैं।

एक बार उद्धव जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा हे "कृष्ण"आप तो महाज्ञानी हैं, भूत, वर्तमान व भविष्य के बारे में सब कुछ जानने वाले हो आपके लिए कुछ भी असम्भव नही,में आपसे मित्र धर्म की परिभाषा जानना चाहता हूँ.उसके गुण धर्म क्या क्या हैं। By वनिता कासनियां पंजाब  🌹🙏🙏🌹 भगवान बोले उद्धव सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति के समय बिना मांगे ही अपने मित्र की सहायता करे.उद्धव जी ने बीच मे रोकते हुए कहा "हे कृष्ण" अगर ऐसा ही है तो फिर आप तो पांडवों के प्रिय बांधव थे.एक बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर विश्वास किया किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है उसके अनुरूप मित्रता नही निभाई.आप चाहते तो पांडव जुए में जीत सकते थे। आपने धर्मराज युधिष्ठिर को जुआ खेलने से क्यों नही रोका. ठीक है आपने उन्हें नहीं रोका,लेकिन यदि आप चाहते तो अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा पासे को धर्मराज के पक्ष में भी तो कर सकते थे लेकिन आपने भाग्य को धर्मराज के पक्ष में भी नहीं किया।  आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और स्वयं को हारने के बाद भी तो रोक सकते थे उसके बाद जब धर्मराज ने अपने भाइयों को दां...