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मेरे_श्याम_के_आँसू By वनिता कासनियां पंजाब एक बार श्री कृष्ण को रोते देखकर गोपी श्री कृष्ण से रोने का कारण पूछती है!उसी के उतर में श्री कृष्ण कहते हैं.....सुनो सखी जहाँ प्रेम है, वहाँ निश्चय ही आखों से आसुंओ की धारा बहती रहेगी!प्रेमी का हृदय पिघलकर आँसुओं के रूप में निरंतर बहता रहता है और उसी अश्रु-जल, प्रेम जल में प्रेम का पौधा अंकुरित होकर निरंतर बढ़ता रहता है! सखी! मैं स्वयं प्रेमी के प्रेम में निरंतर रोता रहता हूँ मेरी आँखों से निरंतर आँसुओं की धारा चलती रहती है!मेरी इच्छा नहीं थी कि मैं बतांउ! पर तुमने बार-बार पूछा तुम क्यों रोते हो? तो आज बात कह देता हूँ ! मैं अपने प्रेमी के प्रेम में रोता हूँ, जो मेरा प्रेमी है, वह निरंतर रोता है और मैं भी उसके लिये निरंतर रोता हूँ!सखी! जिस दिन मेरे जैसे प्रेम के समुद्र में तुम डूबोगी, जिस दिन तुम्हारे हृदय में प्रेम का समुद्र....उसी प्रेम का समुद्र जो मेरे हृदय में नित्य-निरंतर लहराता रहता है, लहराने लगेगा, उस दिन तुम भी मेरी ही तरह बस केवल रोती रहोगी!सखी! उन आँसुओं की धारा से.जगत पवित्र होता है, वे आँसू नहीं है, वह तो गंगा यमुना की धारा है!उनमे डूबकी लगाने पर फिर त्रिताप नहीं रहते!सखी! मैं देखता हूँ कि मेरी गोपी, मेरे प्राणों के समान प्यारी गोपी रो रही है, मेरी प्रियतमा रो रही है, बस मैं भी यह देखते ही रोने लगता हूँ! मेरा हृदय भी रोने लगा जाता है! मेरी प्रिया प्राणों से बढ़कर प्यारी गोपी जिस प्रकार एंकात में बैठकर रोती है, वैसे ही मैं भी एंकात मैं बैठकर रोता हूँ, और रो रोकर प्राण शीतल करता हूँ यह है मेरे रोने का रहस्य।कान्हा दीवानी वनिता...!!

मेरे_श्याम_के_आँसू  By वनिता कासनियां पंजाब एक बार श्री कृष्ण को रोते देखकर गोपी श्री कृष्ण से रोने का कारण पूछती है! उसी के उतर में श्री कृष्ण कहते हैं.....सुनो सखी जहाँ प्रेम है, वहाँ निश्चय ही आखों से आसुंओ की धारा बहती रहेगी! प्रेमी का हृदय पिघलकर आँसुओं के रूप में निरंतर बहता रहता है और उसी अश्रु-जल, प्रेम जल में प्रेम का पौधा अंकुरित होकर निरंतर बढ़ता रहता है!  सखी! मैं स्वयं प्रेमी के प्रेम में निरंतर रोता रहता हूँ मेरी आँखों से निरंतर आँसुओं की धारा चलती रहती है! मेरी इच्छा नहीं थी कि मैं बतांउ! पर तुमने बार-बार पूछा तुम क्यों रोते हो?  तो आज बात कह देता हूँ ! मैं अपने प्रेमी के प्रेम में रोता हूँ,  जो मेरा प्रेमी है, वह निरंतर रोता है और मैं भी उसके लिये निरंतर रोता हूँ! सखी! जिस दिन मेरे जैसे प्रेम के समुद्र में तुम डूबोगी, जिस दिन तुम्हारे हृदय में प्रेम का समुद्र.... उसी प्रेम का समुद्र जो मेरे हृदय में नित्य-निरंतर लहराता रहता है, लहराने लगेगा,  उस दिन तुम भी मेरी ही तरह बस केवल रोती रहोगी! सखी! उन आँसुओं की धारा से.जगत पवित्र होता है, व...

बृजवास_मिलनौ_इतनौ_सहज_नाय By वनिता कासनियां पंजाब 💞ऐसे ही मिल जातो जो वास बृज को,तो हर आदमी बृजवासी हैं जातो💞💞बृजवास मिलना आसान नहीं क्योंकिये कोई घर या मकान नहीं।💞💞💞ये धाम है मेरे प्रिया-प्रियतम का, यहाँ का प्रवेश देवों के लिये भी आसान नहीं💞💞सिर्फ भाव छल कपट रहित हृदय ही बृज में बसा सकता है श्यामा-श्याम की चरन रज दिला सकता है।।बृजवास पाने के लिए बृज की महारानी श्री किशोरी जू के चरणों में विनयकर प्रार्थना कीजिए कि किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊं किशोरी की रज पाऊं तभी ही संभव है बृजवास।सुनो कान्हा जी....!!!आज न नींद आई कान्हान ख्वाब आए,कान्हा तुम जो ख्यालो मे बेहिसाबआएकान्हा दीवानी वर्षा...!!!कान्हा दीवानी वनिता..!! श्री लाड़ली राधा रानी

बृजवास_मिलनौ_इतनौ_सहज_नाय By  वनिता कासनियां पंजाब 💞ऐसे ही मिल जातो जो वास बृज को, तो हर आदमी बृजवासी हैं जातो💞 💞बृजवास मिलना आसान नहीं क्योंकि ये कोई घर या मकान नहीं।💞💞 💞ये धाम है मेरे प्रिया-प्रियतम का,  यहाँ का प्रवेश देवों के लिये भी आसान नहीं💞 💞सिर्फ भाव छल कपट रहित हृदय ही बृज में बसा सकता है श्यामा-श्याम की चरन रज दिला सकता है।। बृजवास पाने के लिए बृज की महारानी श्री किशोरी जू के चरणों में विनयकर प्रार्थना कीजिए कि किशोरी तेरे चरणन की रज पाऊं किशोरी की रज पाऊं तभी ही संभव है बृजवास। सुनो कान्हा जी....!!! आज न नींद आई कान्हा न ख्वाब आए, कान्हा तुम जो ख्यालो मे बेहिसाब आए कान्हा दीवानी वर्षा...!!! कान्हा दीवानी वनिता..!!             श्री लाड़ली राधा रानी 

कभी विष्णु कभी शिव बन भक्त को छकाते भगवान भक्तों को आनन्द और शिक्षा देने के लिए होती है भगवान की लीला!!!!!!! By वनिता कासनियां पंजाब ?तीन बार ऐसा हुआ कि नरहरि सुनार को आंखें बंद करने पर शंकर और आंखें खोलने पर विट्ठल भगवान के दर्शन होते थे । तब नरहरि सुनार को आत्मबोध हुआ कि जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल हैं, वे ही शंकर हैं, दोनों एक ही हरिहर हैं । भगवान शिव और विष्णु की एकता दर्शाती एक मनोरंजक भक्ति कथा,,,,,,इस कथा को लिखने का उद्देश्य पाठकों को यह बताना है कि भगवान विष्णु और शंकर में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं । भगवान शंकर और विष्णु वास्तव में दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति हैं । जल एक ही है, सिर्फ घड़े दो हैं । इसी भाव को लोगों तक पहुंचाने के लिए भगवान शंकर ने अपने भक्त नरहरि सुनार के साथ एक लीला की । भगवान जब कोई लीला करते हैं तो उसके पीछे कोई महान शिक्षा या आदर्श छिपा रहता है और भक्तों को उससे आनन्द मिलता है ।नरहरि सुनार : शिव भक्त पर विष्णु द्रोहीपुराने समय में पण्ढरपुर में नरहरि सुनार नाम के ऐसे शिव भक्त हुए जिन्होंने पण्ढरपुर में रहकर भी कभी पण्ढरीनाथ श्रीपाण्डुरंग के दर्शन नहीं किए । उनकी ऐसी विलक्षण शिवभक्ति थी । लेकिन भगवान को जिसे अपने दर्शन देने होते हैं, वे कोई-न-कोई लीला रच ही देते हैं ।भगवान की लीला से एक व्यक्ति इन्हें श्रीविट्ठल (भगवान विष्णु) की कमर की करधनी बनाने के लिए सोना दे गया और उसने भगवान की कमर का नाप बता दिया । नरहरि ने करधनी तैयार की, पर जब वह भगवान को पहनाई गयी तो वह चार अंगुल बड़ी हो गयी । उस व्यक्ति ने नरहरि से करधनी को चार अंगुल छोटा करने को कहा । करधनी सही करके जब दुबारा श्रीविट्ठल को पहनाई गयी तो वह इस बार चार अंगुल छोटी निकली । फिर करधनी चार अंगुल बड़ी की गयी तो वह भगवान को चार अंगुल बड़ी हो गयी । फिर छोटी की गयी तो वह चार अंगुल छोटी हो गयी । इस तरह करधनी को चार बार छोटा-बड़ा किया गया ।आंखों पर पट्टी बांधकर नरहरि ने लिया भगवान का नाप!!!!!!लाचार होकर नरहरि सुनार ने स्वयं चलकर श्रीविट्ठल का नाप लेने का निश्चय किया । पर कहीं भगवान के दर्शन न हो जाएं, इसलिए उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली । हाथ बढ़ाकर जो वह मूर्ति की कमर टटोलने लगे तो उनके हाथों को पांच मुख, दस हाथ, सर्प के आभूषण, मस्तक पर जटा और जटा में गंगा—इस तरह की शिवजी की मूर्ति का अहसास हुआ । उनको विश्वास हो गया कि ये तो उनके आराध्य भगवान शंकर ही हैं ।उन्होंने अपनी आंखों की पट्टी खोल दी और ज्यों ही मूर्ति को देखा तो उन्हें श्रीविट्ठल के दर्शन हुए । फिर आंखें बंद करके मूर्ति को टटोला तो उन्हें पंचमुख, चन्द्रशेखर, गंगाधर, नागेन्द्रहाराय श्रीशंकर का स्वरूप प्रतीत हुआ।आंखें बंद करने पर शंकर, आंखें खोलने पर विट्ठल!!!!!!!तीन बार ऐसा हुआ कि आंखें बंद करने पर शंकर और आंखें खोलने पर नरहरि सुनार को विट्ठल भगवान के दर्शन होते थे । तब नरहरि सुनार को आत्मबोध हुआ कि जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल हैं, वे ही शंकर हैं, दोनों एक ही हरिहर हैं ।अभी तक उनकी जो भगवान शंकर और विष्णु में भेदबुद्धि थी, वह दूर हो गयी और उनका दृष्टिकोण व्यापक हो गया । अब वे भगवान विट्ठल के भक्तों के ‘बारकरी मण्डल’ में शामिल हो गए । सुनार का व्यवसाय करते हुए हुए भी इन्होंने अभंग (भगवान विट्ठल या बिठोवा की स्तुति में गाए गए छन्द) की रचना की । इनके एक अभंग का भाव कितना सुन्दर है—‘भगवन् ! मैं आपका एक सुनार हूँ, आपके नाम का व्यवहार (व्यवसाय) करता हूँ । यह गले का हार देह है, इसका अन्तरात्मा सोना है। त्रिगुण का सांचा बनाकर उसमें ब्रह्मरस भर दिया । विवेक का हथौड़ा लेकर उससे काम-क्रोध को चूर किया और मनबुद्धि की कैंची से राम-नाम बराबर चुराता रहा । ज्ञान के कांटे से दोनों अक्षरों को तौला और थैली में रखकर थैली कंधे पर उठाए रास्ता पार कर गया। यह नरहरि सुनार, हे हरि ! तेरा दास है, रातदिन तेरा ही भजन करता है ।’शिव-द्रोही वैष्णवों को और विष्णु-द्वेषी शैवों को इस कथा से सीख लेनी चाहिए ।पद्मपुराण पा ११४।१९२ में भगवान शंकर विष्णुजी से कहते हैं—न त्वया सदृशो मह्यं प्रियोऽस्ति भगवन् हरे ।पार्वती वा त्वया तुल्या न चान्यो विद्यते मम ।।अर्थात्—औरों की तो बात ही क्या, पार्वती भी मुझे आपके समान प्रिय नहीं है ।इस पर भगवान विष्णु ने कहा—‘शिवजी मेरे सबसे प्रिय हैं, वे जिस पर कृपा नहीं करते उसे मेरी भक्ति प्राप्त नहीं होती है ।’कूर्मपुराण में ब्रह्माजी ने कहा है—‘जो लोग भगवान विष्णु को शिवशंकर से अलग मानते हैं, वे मनुष्य नरक के भागी होते हैं ।’* सिव द्रोही मम भगत कहावा। सो नर सपनेहुँ मोहि न पावा॥संकर बिमुख भगति चह मोरी। सो नारकी मूढ़ मति थोरी॥भावार्थ:- जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं पाता। शंकरजी से विमुख होकर (विरोध करके) जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्पबुद्धि है॥* संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुँ बास॥भावार्थ:- जिनको शंकरजी प्रिय हैं, परन्तु जो मेरे द्रोही हैं एवं जो शिवजी के द्रोही हैं और मेरे दास (बनना चाहते) हैं, वे मनुष्य कल्पभर घोर नरक में निवास करते हैं॥

कभी विष्णु कभी शिव बन भक्त को छकाते भगवान भक्तों को आनन्द और शिक्षा देने के लिए होती है भगवान की लीला!!!!!!! By  वनिता कासनियां पंजाब  ? तीन बार ऐसा हुआ कि नरहरि सुनार को आंखें बंद करने पर शंकर और आंखें खोलने पर विट्ठल भगवान के दर्शन होते थे । तब नरहरि सुनार को आत्मबोध हुआ कि जो शंकर हैं, वे ही विट्ठल (विष्णु) हैं और जो विट्ठल हैं, वे ही शंकर हैं, दोनों एक ही हरिहर हैं । भगवान शिव और विष्णु की एकता दर्शाती एक मनोरंजक भक्ति कथा,,,,,, इस कथा को लिखने का उद्देश्य पाठकों को यह बताना है कि भगवान विष्णु और शंकर में कोई भेद नहीं है, दोनों एक ही हैं । भगवान शंकर और विष्णु वास्तव में दो घड़ों में रखे हुए जल की भांति हैं । जल एक ही है, सिर्फ घड़े दो हैं । इसी भाव को लोगों तक पहुंचाने के लिए भगवान शंकर ने अपने भक्त नरहरि सुनार के साथ एक लीला की । भगवान जब कोई लीला करते हैं तो उसके पीछे कोई महान शिक्षा या आदर्श छिपा रहता है और भक्तों को उससे आनन्द मिलता है । नरहरि सुनार : शिव भक्त पर विष्णु द्रोही पुराने समय में पण्ढरपुर में नरहरि सुनार नाम के ऐसे शिव भक्त हुए जिन्होंने पण्ढरपुर में रहकर ...

एक बार उद्धव जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा हे "कृष्ण"आप तो महाज्ञानी हैं, भूत, वर्तमान व भविष्य के बारे में सब कुछ जानने वाले हो आपके लिए कुछ भी असम्भव नही,में आपसे मित्र धर्म की परिभाषा जानना चाहता हूँ.उसके गुण धर्म क्या क्या हैं।By वनिता कासनियां पंजाब 🌹🙏🙏🌹भगवान बोले उद्धव सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति के समय बिना मांगे ही अपने मित्र की सहायता करे.उद्धव जी ने बीच मे रोकते हुए कहा "हे कृष्ण" अगर ऐसा ही है तो फिर आप तो पांडवों के प्रिय बांधव थे.एक बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर विश्वास किया किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है उसके अनुरूप मित्रता नही निभाई.आप चाहते तो पांडव जुए में जीत सकते थे।आपने धर्मराज युधिष्ठिर को जुआ खेलने से क्यों नही रोका. ठीक है आपने उन्हें नहीं रोका,लेकिन यदि आप चाहते तो अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा पासे को धर्मराज के पक्ष में भी तो कर सकते थे लेकिन आपने भाग्य को धर्मराज के पक्ष में भी नहीं किया। आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और स्वयं को हारने के बाद भी तो रोक सकते थे उसके बाद जब धर्मराज ने अपने भाइयों को दांव पर लगाना शुरू किया, तब तो आप सभाकक्ष में पहुँच सकते थे।किंतु आपने ये भी नहीं किया.इसके बाद जब दुष्ट दुर्योधन ने पांडवों को भाग्यशाली कहते हुए द्रौपदी को दांव पर लगाने हेतु प्रेरित किया और जीतने पर हारा हुआ सब कुछ वापस कर देने का लालच दिया कम से कम तब तो आप हस्तक्षेप कर ही सकते थे।लेकिन इसके स्थान पर आपने तब हस्तक्षेप किया जब द्रौपदी लगभग अपनी लाज खो रही थी, तब जाकर आपने द्रोपदी के वस्त्र का चीर बढ़ाकर द्रौपदी की लाज बचाई किंतु ये भी आपने बहुत देरी से किया उसे एक पुरुष घसीटकर भरी सभा में लाता है, और इतने सारे पुरुषों के सामने निर्वस्त्र करने के लिए छोड़ देता है. जब आपने संकट के समय में पांडवों की सहायता की ही नहीं की तो आपको आपदा बांधव (सच्चा मित्र) कैसे कहा जा सकता है. क्या यही धर्म है।भगवान श्री कृष्ण बोले - हे उद्धव सृष्टि का नियम है कि जो विवेक से कार्य करता है विजय उसी की होती है उस समय दुर्योधन अपनी बुद्धि और विवेक से कार्य ले रहा था किंतु धर्मराज ने तनिक मात्र भी अपनी बुद्धि और विवेक से काम नही लिया इसी कारण पांडवों की हार हुई।भगवान कहने लगे कि हे उद्धव - दुर्योधन के पास जुआ खेलने के लिए धन तो बहुत था, लेकिन उसे पासों का खेल खेलना नहीं आता था, इसलिए उसने अपने मामा शकुनि से द्यूतक्रीडा करवाई यही तो उसका विवेक था धर्मराज भी तो इसी प्रकार विवेक से कार्य लेते हुए ऐसा सोच सकते थे और अपने चचेरे भाई को पासा देकर उनसे चाल चलवा सकते थे या फिर ये भी तो कह सकते थे कि उनकी तरफ से श्री कृष्ण यानी मैं खेलूंगा।जरा विचार करो कि अगर शकुनी और मैं खेलते तो कौन जीतता ? पांसे के अंक उसके अनुसार आते या मेरे अनुसार,चलो इसे भी छोड़ो. उन्होंने मुझे खेल में शामिल नहीं किया, इसके लिए तो उन्हें क्षमा भी किया जा सकता है लेकिन उन्होंने विवेक हीनता से एक और बड़ी गलती तब की जब उन्होंने मुझसे प्रार्थना की, कि मैं तब तक सभाकक्ष में न आऊँ, जब तक कि मुझे बुलाया न जाए क्योंकि ये उनका दुर्भाग्य था कि वे मुझसे छुपकर जुआ खेलना चाहते थे।इस प्रकार उन्होंने मुझे अपनी प्रार्थना से बाँध दिया.मुझे सभाकक्ष में आने की अनुमति नहीं थी इसके बाद भी मैं कक्ष के बाहर बहुत समय तक प्रतीक्षा कर रहा था कि मुझे कब बुलावा आता है।पांडव जुए में इतने डूब गए कि भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव सब मुझे भूल गए और मुझे बुलाने के स्थान पर केवल अपने भाग्य और दुर्योधन को कोसते रहे.अपने भाई के आदेश पर जब दुशासन द्रोपदी को बाल पकड़कर घसीटता हुआ सभाकक्ष में लाया तब वह अपने सामर्थ्य के अनुसार जूझती रही, तब भी उसने मुझे नहीं पुकारा।उसकी बुद्धि तब जागृत हुई, जब दुशासन ने उसे निर्वस्त्र करना प्रारंभ किया.जब उसने स्वयं पर निर्भरता छोड़कर 'हरि, हरि, अभयम कृष्णा, अभयम' की गुहार लगाते हुए मुझे पुकारा तो में बिना बिलम्ब किये वहां पहुंचा. हे उद्धव इस स्थिति में तुम्हीं बताओ मेरी गलती कहाँ रही।उद्धव जी बोले कृष्ण आपका स्पष्टीकरण प्रभावशाली अवश्य है, किन्तु मुझे पूर्ण संतुष्टि नहीं हुई, क्या मैं एक और प्रश्न पूछ सकता हूँ ?कृष्ण की अनुमति से उद्धव ने पूछा – इसका अर्थ यह हुआ कि आप तभी आओगे, जब आपको बुलाया जाएगा.क्या संकट से घिरे अपने भक्त की मदद करने आप स्वतः नहीं आओगे।भगवान मुस्कुराये - उद्धव सृष्टि में हर किसी का जीवन उसके स्वयं के कर्मों के प्रतिफल के आधार पर चलता है। में इसमें प्रत्यक्ष रूप से कोई हस्तक्षेप नही करता। मैं तो केवल एक 'साक्षी' हूँ जो सदैव तुम्हारे साथ रहकर जो हो रहा है उसे देखता रहता हूँ. यही ईश्वर का धर्म है।'भगवान को ताना मारते हुए उद्धव जी बोले "वाह वाह, बहुत अच्छा कृष्ण", तो इसका अर्थ यह हुआ कि आप हमारे नजदीक खड़े रहकर हमारे सभी कर्मों को देखते रहेंगें हम पाप पर पाप करते जाएंगे और आप हमें रोकने के स्थान पर केवल देखते रहेंगे. आप क्या चाहते हैं कि हम भूल करते करते पाप की गठरी बांधते रहें और उसका फल भोगते रहें।भगवान बोले – उद्धव, तुम धर्म और मित्रता को समीप से समझो, जब तुम समझकर अनुभव कर लोगे कि मैं तुम्हारे साथ हर क्षण रहता हूँ, तो क्या तुम पाप कर सकोगे ?तुम पाप कर ही नही सकोगे और अनेक बार विचार करोगे की मुझे विधाता देख रहा है किंतु जब तुम मुझे भूल जाते हो और यह समझने लगते हो कि तुम मुझसे छुपकर कुछ भी कर सकते हो, तुम्हे कोई देख नही रहा तब ही तुम संकट में फंसते हो। धर्मराज का अज्ञान यह था उसने समझा कि वह मुझ से छुपकर जुआ खेल सकता हैअगर उसने यह समझ लिया होता कि मैं प्रत्येक प्राणी मात्र के साथ हर समय उपस्थित रहता हूँ तो क्या वह जुआ खेलते।और यदि खेलते भी तो जुए के उस खेल का परिणाम कुछ और नहीं होता। भगवान के उत्तर से उद्धव जी अभिभूत हो गये और बोले – प्रभु कितना रहस्य छुपा है आपके दर्शन में। कितना महान सत्य है ये ! पापकर्म करते समय हम ये कदापि विचार नही करते कि परमात्मा की नज़र सब पर है कोई उनसे छिप नही सकता,और उनकी दृष्टि हमारे प्रत्येक अच्छे बुरे कर्म पर है। परन्तु इसके विपरीत हम इसी भूल में जीते रहते हैं कि हमें कोई देख नही रहा।प्रार्थना और पूजा हमारा विश्वास है जैसे ही हम यह विश्वास करना शुरू करते हैं कि भगवान हर क्षण हमें देख रहे हैं, उनके बिना पत्ता तक नहीं हिलता तो परमात्मा भी हमें ऐसा ही आभास करा देते हैं की वे हमारे आस पास ही उपस्तिथ हैं और हमें उनकी उपस्थिति का आभास होने लगता है.हम पाप कर्म केवल तभी करते हैं जब हम भगवान को भूलकर उनसे विमुख हो जाते हैं।

एक बार उद्धव जी ने भगवान श्री कृष्ण से पूछा हे "कृष्ण"आप तो महाज्ञानी हैं, भूत, वर्तमान व भविष्य के बारे में सब कुछ जानने वाले हो आपके लिए कुछ भी असम्भव नही,में आपसे मित्र धर्म की परिभाषा जानना चाहता हूँ.उसके गुण धर्म क्या क्या हैं। By वनिता कासनियां पंजाब  🌹🙏🙏🌹 भगवान बोले उद्धव सच्चा मित्र वही है जो विपत्ति के समय बिना मांगे ही अपने मित्र की सहायता करे.उद्धव जी ने बीच मे रोकते हुए कहा "हे कृष्ण" अगर ऐसा ही है तो फिर आप तो पांडवों के प्रिय बांधव थे.एक बांधव के रूप में उन्होंने सदा आप पर विश्वास किया किन्तु आपने सच्चे मित्र की जो परिभाषा दी है उसके अनुरूप मित्रता नही निभाई.आप चाहते तो पांडव जुए में जीत सकते थे। आपने धर्मराज युधिष्ठिर को जुआ खेलने से क्यों नही रोका. ठीक है आपने उन्हें नहीं रोका,लेकिन यदि आप चाहते तो अपनी दिव्य शक्ति के द्वारा पासे को धर्मराज के पक्ष में भी तो कर सकते थे लेकिन आपने भाग्य को धर्मराज के पक्ष में भी नहीं किया।  आप कम से कम उन्हें धन, राज्य और स्वयं को हारने के बाद भी तो रोक सकते थे उसके बाद जब धर्मराज ने अपने भाइयों को दां...

💗|| राधे राधे ||💗 By वनिता कासनियां पंजाब "नन्हे कृष्ण कन्हैया अपनी मैया यशोदा से झगड़ रहे हैं, 'काचो दूध पियावति पचि-पिच'- कहती है दिन में कई बार कच्चा दूध पिया करो मेरे लाल चोटी 'नागिन सी लाम्बी मोटी' हो जायेगी, कितना समय व्यतीत हो गया अभी भी वैसी की वैसी ही है छोटी सी, तनिक भी तो नही लम्बी हुई। रोष में रूठ गये हैं नन्हे कान्हा अपनी मैया से। बलि बलि जा रही है मैया अपने प्राण प्रिय लला की रूठने की मुद्रा पर और मुस्कराते हुये उठ कर कुछ रूठे, कुछ चंचल, कुछ मचले, कुछ अकड़े लाडले के पास आकर, उसे अपनी गोद में उठा लेती हैं। मैया को भय है कि कहीं उसके लाडले का मन दूध पीने से हट ही न जाये। अत: वह और अन्य कई तर्क देकर अपने लला को आश्वस्त करती है- "मेरे नन्हे कुवँर, जैसे बृज के और बालक हैं उसी प्रकार कजरी का दूध पीने से तुम्हारी भी चोटी शीघ्र ही बढ़ जायेगी" मैया ने किसी प्रकार अपने लाडले लला को मना ही लिया और वह कजरी गैया का दूध पीने कोसहमत हो गये। मैया बड़े लाड़ से अति स्वादिष्ट दूध बनवा कर अपने लला को पिला रही है। कितना मनभावन अलौकिक दृश्य है, अद्भुत चित्रण ! नन्हे कान्हा एक घूटँ दूध पीते हैं और तुरंत दूसरा हाथ पीछे कर अपनी चोटी टटोलते हैं कि बढ़ी या नहीं, पुनः फिर एक घूटँ की भरते हैं और हाथ पीछे कर पुनः अपनी चोटी टटोलते हैं की चोटी बढ़रही है या नहीं- कही मैया केवल झूठी दिलासा ही तो नही दे रही दूध पिलाने के लिये। घर के सारे सदस्य नन्हे कान्हा की इस शिशु-सुलभ-भोली भावयुक्त लीला पर मुग्ध हो हो कर अपनी सुधा बुध खो रहे हैं। मैया यशोदा अवाक, अपलक, किंकर्तव्यविमूढ़ सी अपने लाड़ले प्राण-धन को निमिमेष निरखे जा रही है। नन्हे कान्हा की इन निर्मल निश्छल बाल-सुलभ शिशु लीलाओं का आनन्द- इस धरा पर कौन है ऐसा जिसके अन्तर्मन में रसधार का प्रस्फुरण न कर देगा, इसके लिये तो देव, सुर, ऋषि, मुनि भी प्रति क्षण ललायित रहतें हैं।"कान्हा दीवानी वर्षा...!

💗|| राधे राधे ||💗 By वनिता कासनियां पंजाब "नन्हे कृष्ण कन्हैया अपनी मैया यशोदा से झगड़ रहे हैं, 'काचो दूध पियावति पचि-पिच'- कहती है दिन में कई बार कच्चा दूध पिया करो मेरे लाल चोटी 'नागिन सी लाम्बी मोटी' हो जायेगी, कितना समय व्यतीत हो गया अभी भी वैसी की वैसी ही है छोटी सी, तनिक भी तो नही लम्बी हुई। रोष में रूठ गये हैं नन्हे कान्हा अपनी मैया से।              बलि बलि जा रही है मैया अपने प्राण प्रिय लला की रूठने की मुद्रा पर और मुस्कराते हुये उठ कर कुछ रूठे, कुछ चंचल, कुछ मचले, कुछ अकड़े लाडले के पास आकर, उसे अपनी गोद में उठा लेती हैं। मैया को भय है कि कहीं उसके लाडले का मन दूध पीने से हट ही न जाये। अत: वह और अन्य कई तर्क देकर अपने लला को आश्वस्त करती है-           "मेरे नन्हे कुवँर, जैसे बृज के और बालक हैं उसी प्रकार कजरी का दूध पीने से तुम्हारी भी चोटी शीघ्र ही बढ़ जायेगी"      मैया ने किसी प्रकार अपने लाडले लला को मना ही लिया और वह कजरी गैया का दूध पीने कोसहमत हो गये। मैया बड़े लाड़ से अति स्वादिष्...

राधे राधे ?गीता के अनुसार, जीव संसार में लौट कर क्यों आता है ? By वनिता कासनियां पंजाब गीता के आठवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अन्तकाल के चिंतन का महत्व बतलाते हुए अर्जुन को निरन्तर अपना चिंतन करने की आज्ञा देते हैं ।अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् ।य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय ।। (गीता ८।५)अर्थात्—जो पुरुष अन्तकाल में मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है—इसमें कुछ संशय नहीं है।मनुष्य को जीवन में जिससे आसक्ति या मोह होता है, या उसके मन का सबसे अधिक आकर्षण जहां है, अंत समय में उसे वही स्मरण होगा । मृत्यु के समय मनुष्य सबसे अंत में जो विचार करता है अथवा जिसका चिन्तन करता है, उसका अगला जन्म उसी प्रकार का होता है ।यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित: ।। (गीता ८।६)अर्थात्—हे कुन्तीपुत्र ! मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है ।जीव संसार में लौट कर क्यों आता है ?संसार की चीजों जैसे—घर, परिवार, जमीन, पत्नी, पुत्र, पशु-पक्षी आदि में अपनापन, ममता या आसक्ति कर लेने से मनुष्य का मन संसार में बंध जाता है तो फिर भगवान उसको वैसा ही मौका दे देते हैं अर्थात् शरीर छूटने पर ममता के कारण संसार में जन्म दे देते हैं और जीव को विवश होकर संसार में लौटकर आना पड़ता है । किन्तु जिसको सांसारिक चीजों में आसक्ति न होकर भगवान से प्रेम है, वह भगवान को प्राप्त हो जाता है ।राजा भरत की कथा!!!!!!!भगवान ऋषभदेव के पुत्र सम्राट भरत महान त्यागी, भगवद्भक्त व पृथ्वी के एकच्छत्र सम्राट थे । उनके नाम पर ही इस देश का नाम भारतवर्ष पड़ा । पहले इस देश का नाम अजनाभवर्ष था । अंत समय में मृगशावक (हिरन के बच्चे) का स्मरण करने से उन्हें अगले जन्म में मृग होना पड़ा ।समस्त भूमण्डल के सम्राट भरत ने भगवान के भजन के लिए राज्य का त्याग कर दिया और पुलहाश्रम (हरिहरक्षेत्र) में जाकर भजन में लग गए । एक दिन राजा से ऋषि बने भरत गण्डकी नदी में स्नान करके संध्या कर रहे थे । उसी समय एक गर्भवती हरिणी नदी में जल पीने के लिए आयी । हिरणी पानी पी ही रही थी कि कहीं पास में सिंह ने जोर से गर्जना की । भयवश हिरणी पानी पीना छोड़कर जोर से छलांग लगाकर भागी । प्रसव का समय पास ही होने से भय के कारण और जोर से उछलने से उसका गर्भ मृगशावक बाहर निकल गया और नदी में बहने लगा । हिरणी ने इस आघात से थोड़ी दूर जाकर प्राण त्याग दिए । हाल ही में जन्मा मृगशावक भी मरणासन्न था । राजर्षि भरत को उस पर दया आ गयी और वे उसे उठाकर अपने आश्रम में ले आए ।मोह है सभी दु:खों का मूलमोह सब व्याधिन कर मूलातिन्ह ते पुनि उपजहिं बहु सूला ।।मोह या आसक्ति ही मनुष्य के समस्त दु:खों का कारण है । राजर्षि भरत ने मरणासन्न मृगछौने पर दया करके उसकी रक्षा की, यह तो बड़े पुण्य का कार्य था परन्तु धीरे-धीरे इसमें एक दोष उत्पन्न हो गया, यह उनको पता ही न चला । उस मृगशावक से उन्हें मोह हो गया । कहां वे भूमण्डल का राज्य, पत्नी, पांच पुत्रों के मोह को एक पल में त्याग कर वन में आ गए थे, लेकिन अब अनजान हिरणी के बच्चे में इतने आसक्त हो गए कि सारा समय उसकी देखभाल में ही बिताने लगे ।मनुष्य दया करे, प्रेम करे, दूसरों का हित करे पर कहीं पर भी बंधन नहीं बांधना चाहिए, मोह नहीं करना चाहिए । मृगशावक बड़ा हो गया, हृष्ट-पुष्ट हो गया, राजर्षि का कर्तव्य पूरा हो गया । लेकिन मृगशावक के मोह ने उन्हें उसे स्वतन्त्र करने से रोक दिया । वह भी बच्चे की तरह राजर्षि को प्यार करने लगा ।सबको अपना ग्रास बनाने वाली मृत्यु ने राजर्षि भरत का भी द्वार खटखटा दिया, उनका अंतिम समय आ गया । मृगशावक उनके पास ही उदास बैठा उन्हीं को निहार रहा था और राजा भरत का शरीर भी मृगशावक को देखते हुए उसकी चिन्ता में छूटा । इसका फल यह हुआ कि अन्तकाल की भावना के अनुसार साधारण मनुष्यों की तरह दूसरे जन्म में उन्हें मृगशरीर ही मिला।तुलसी ममता राम सों समता सब संसार ।राग न रोष न दोष दुख दास भए भव पार ।।इसलिए मनुष्य को आरम्भ से ही भगवान में मन लगाना चाहिए । यदि मन के आकर्षण के केन्द्र भगवान बन जाएं, तो मरते समय भी वही याद आएंगे ।गीता (८।७) में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं—‘हे अर्जुन ! तू सब समय में निरन्तर मेरा स्मरण कर और युद्ध भी कर । इस प्रकार मुझमें अर्पण किए हुए मन-बुद्धि से युक्त होकर तू नि:सन्देह मुझको ही प्राप्त होगा ।’इसी भाव को प्रकट करता हुआ एक सुन्दर भजन है—इतना तो करना स्वामी जब प्राण तन से निकलें,गोविन्द नाम लेकर, फिर प्राण तन से निकलें ।श्रीगंगाजी का तट हो, यमुना का वंशीवट हो,मेरा सांवरा निकट हो, जब प्राण तन से निकले ।।पीताम्बरी कसी हो, छवि मन में यह बसी हो,होठों पे कुछ हंसी हो, जब प्राण तन से निकले ।श्रीवृन्दावन का स्थल हो, मेरे मुख में तुलसी दल हो,विष्णु चरण का जल हो, जब प्राण तन से निकलें ।।जब कंठ प्राण आवे, कोई रोग ना सतावे,यम दर्श ना दिखावे, जब प्राण तन से निकले ।उस वक़्त जल्दी आना, नहीं श्याम भूल जाना,राधा को साथ लाना, जब प्राण तन से निकले ।।सुधि होवे नाही तन की, तैयारी हो गमन की,लकड़ी हो ब्रज के वन की, जब प्राण तन से निकले ।। एक भक्त की है अर्जी, खुदगर्ज की है गरजी,आगे तुम्हारी मर्जी, जब प्राण तन से निकले ।ये नेक सी अरज है, मानो तो क्या हरज है,कुछ आप का फरज है, जब प्राण तन से निकले ।।

राधे राधे ? गीता के अनुसार, जीव संसार में लौट कर क्यों आता है ? By वनिता कासनियां पंजाब गीता के आठवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण अन्तकाल के चिंतन का महत्व बतलाते हुए अर्जुन को निरन्तर अपना चिंतन करने की आज्ञा देते हैं । अन्तकाले च मामेव स्मरन्मुक्त्वा कलेवरम् । य: प्रयाति स मद्भावं याति नास्त्यत्र संशय ।। (गीता ८।५) अर्थात्—जो पुरुष अन्तकाल में मुझको ही स्मरण करता हुआ शरीर को त्याग कर जाता है, वह मेरे साक्षात् स्वरूप को प्राप्त होता है—इसमें कुछ संशय नहीं है। मनुष्य को जीवन में जिससे आसक्ति या मोह होता है, या उसके मन का सबसे अधिक आकर्षण जहां है, अंत समय में उसे वही स्मरण होगा । मृत्यु के समय मनुष्य सबसे अंत में जो विचार करता है अथवा जिसका चिन्तन करता है, उसका अगला जन्म उसी प्रकार का होता है । यं यं वापि स्मरन्भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् । तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावित: ।। (गीता ८।६) अर्थात्—हे कुन्तीपुत्र ! मनुष्य अन्तकाल में जिस-जिस भी भाव को स्मरण करता हुआ शरीर का त्याग करता है, वह उस-उस को ही प्राप्त होता है; क्योंकि वह सदा उसी भाव से भावित रहा है । जीव संसार में लौट कर क्यों आता ...

बाथरूम में लगे पत्थर की टाइल्स को कैसे चमकाएं | गेट सेट क्लीन | Get Set Clean By वनिता कासनियां पंजाब,?विज्ञापनDomex Fresh Guard Disinfectant Toilet Cleanerक्या आपके बाथरूम में लगे पत्थर की टाइल्स की चमक उड़ गयी है, और उनपर दाग़ भी जम गए हैं? इन्हें चमकाने की चिंता को जाएं भूल, चूंकि इन तरीक़ों से आप बाथरूम की टाइल्स की सफ़ाई आसानी से कर सकते हैं। तो चलिए, जानते है इन घरेलू टिप्स के बारे में।पत्थर की टाइल्स साफ़ करने के लिए ऐसिड का इस्तेमाल न करें। इससे टाइल्स ख़राब हो सकती हैं।१) बेकिंग सोडा से गंदगी दूर करेंपत्थर की टाइल्स में जमी धूल की वजह से ये गंदी दिखाई दे सकती हैं। साथ ही, इन्हें सही समय पर साफ़ नहीं किया तो इनसे गंध भी आ सकती है। इस गंदगी को दूर करने के लिए बड़े बॉउल में १ बड़ा चम्मच बेकिंग सोडा डालें। फिर इसमें ३-४ छोटे चम्मच पानी मिलाकर मिश्रण तैयार करें। मिश्रण को टाइल्स पर लगाकर १०-१५ मिनट के लिए ऐसे ही छोड़ दें। अब पुराने ब्रश की मदद से मिश्रण को रगड़ें। आख़िर में टाइल्स को साफ़ पानी से धोएं और सूखे कपड़ें से पोंछें।२) माइल्ड डिटर्जेंट से साफ़ करेंविज्ञापनDomex Fresh Guard Disinfectant Toilet Cleanerपत्थर की टाइल्स पर लगे खारे पानी के दाग़ आसानी से दिखाई देते हैं। इन दाग़ों को साफ़ करने के लिए बाल्टीभर पानी में ३ बड़े चम्मच माइल्ड डिटर्जेंट मिलाकर घोल तैयार करें। अब स्क्रबर को घोल में डुबोकर टाइल्स पर हल्के हाथ से गोलाकार रगड़ें। फिर साफ़ पानी से इन्हें धोएं और सूखे कपड़ें से पोंछें।३) डिशवॉशिंग लिक्विड से चमकाएंआपके बाथरूम में लगी पत्थर की टाइल्स पर अगर गंदगी का राज है, तो इन्हें साफ़ करने के लिए बाल्टीभर गुनगुने पानी में ३ बड़े चम्मच डिशवॉशिंग लिक्विड मिलाकर घोल तैयार करें। फिर स्पंज को घोल में डुबोकर टाइल्स पर गोलाकार रगड़ें। अब साफ़ पानी में कपड़ा भिगोकर टाइल्स को पोंछें, और फिर सूखे कपड़े से दोबारा पोंछें। इससे टाइल्स पर पानी के दाग़ नहीं दिखेंगे, साथ ही वो चमकने लगेंगी।४) टाइल्स को पॉलिश करनेवाला पाउडर छिड़केंपत्थर की टाइल्स की चमक बरक़रार रखने के लिए इनपर लगे दाग़ साफ़ करने चाहिए। इसके लिए सबसे पहले टाइल्स को पॉलिश करनेवाला पाउडर छिड़कें। फिर गीले कपड़ें से टाइल्स पर गोलाकार रगड़ें। इससे सारे दाग़ साफ़ होंगें और आपकी टाइल्स चमकने लगेंगी।इन आसान टिप्स से आप बाथरूम में लगी पत्थर की टाइल्स की खोई हुई चमक वापस ला सकते हैं।प्रतिपुष्टि सहायक

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